नोवल कोरोना वायरस छः महीने पहले चीन के वुहान शहर से होकर विश्व के लगभग सभी देशों में अपने पैर पसार चुका है। आमतौर पर जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो अमूमन कुछ ही देशों तक सीमित रहती है किन्तु इसने विश्वभर की पूरी मानव जाति को ही संकट में डाल दिया है। वास्तविकता तो यह है कि वर्तमान संकट से स्पष्ट है कि दुनिया के तमाम देश किस तरह एक-दूसरे पर निर्भर हैं और यह परस्पर-निर्भरता दुनिया की शान्ति और कमजोरी दोनों है। मनुष्य जिस समाज में जीता है, उसमें समस्त मानवीय सम्बन्धों का आधार भावना ही होती है। भावना ही वह कसौटी है जिससे मनुष्य को मनुष्यत्व का दर्जा प्राप्त है किन्तु आज सम्पूर्ण विश्व में अहं का प्रचार-प्रसार हो रहा है। कोई अमेरिका फर्स्ट की बात करता है तो कोई चीन फर्स्ट की परन्तु ऐसा कोई नहीं जो मनुष्यत्व की बात करे। पाश्चात्य संस्कृति ने भावना को दुर्भावना में परिवर्तित कर दिया है। तभी तो कोविड-19 जैसे रोगों द्वारा प्रकृति इस बात का संदेश देना चाहती है कि हे मानव! तू इतना न इतरा। तेरा इस संसार में कुछ नहीं।
मानो प्रकृति कह रही हो कि-
“इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रांत भवन में टिके रहना।
किन्तु पहुँचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं।।”
प्रसाद जी की ये पंक्तियाँ प्रकृति के प्रलय की विभीषिका की ओर इशारा करके साफ-साफ कहती लग रही हैं कि जहाँ तुम्हारी सोच का अंत होता है वहाँ से प्रकृति का चरण प्रारम्भ होता है।
इस प्रकृति ने ही आज सामाजिक ताने-बाने को कोरोना के माध्यम से ध्वस्त कर दिया है क्योंकि सही रूप में हम निकट होकर भी अतिदूर हैं।
भारतीय संस्कृति एवं व्यवहार की आधरशिला को भूलने का दुष्परिणाम ही है कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के नारे को भूलने वाला विश्व अलग-थलग पड़ा हुआ है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ एवं ‘सर्व सन्तु निरामयाः’ को न तो अमेरिका ही बर्दाश्त कर सकता है और न तो चीन ही। अमेरिका विश्व के दुःख से सुखी है तो चीन रोगी विश्व से सुखी है। तभी तो डब्ल्यू.एच.ओ. की मदद से कोविड-19 को शातिराना अंदाज में पूरे विश्व को गिफ्ट कर दिया। अब जबकि लाखों लोग मर रहे हैं तो स्वास्थ्य का मरहम लगाने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को प्रेषित कर रहा है। क्या ऐसा कभी भारतीय संस्कृति में हो सकता है? कदापि नहीं; क्योंकि इस संस्कृति ने देना सीखा है, लेना नहीं। हजारों वर्षों से हम लेने से ज्यादा देते रहे हैं। जैसे सूर्य वाष्पीकृत जल को कई गुना करके पुनः पृथ्वी में प्राण संचरण हेतु बरसा देता है, उसी प्रकार की संस्कृति भारतीय संस्कृति है। यहाँ तो हर बगिया का हर फूल महत्त्वपूर्ण है, तभी तो शायर सैलानी ने कहा है कि-
“चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है,
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं, तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो।”
प्राकृतिक आवरण ही वस्तुतः पर्यावरण कहलाता है और वह आवरण आज हमने अपनी वैज्ञानिक खोजों से विस्मृत कर दिया है। अतः पर्यावरण संस्कृति द्विपक्षीय है। अर्थात् जड़ प्रकृति और चेतन मनुष्य दोनों का एक-दूसरे के प्रति कर्त्तव्य बनता है। यह कर्त्तव्य हमने सिर्फ और सिर्फ प्रकृति के दोहन रूपी अधिकार में समाहित कर लिया है। परस्पर सेवा भावना से ही यह संसार-चक्र गतिमान है। संसार में आज गरीब-अमीर की खाई विस्तृत होती जा रही है। मौलिकतया निर्धन व्यक्ति पशुवत् हो चुका है। आज मन और तन दोनों प्रदूषित हो चुके हैं। जब पर्यावरण संस्कृति दूषित होती है तो जीवन का प्रलयात्मक अंत होता है और जब यह शुद्ध होती है तो जीवन का उदय होता है। वर्तमान में वैज्ञानिक अनेक ग्रहों की खोज कर रहे हैं। इन ग्रहों पर वातावरण प्रदूषित है अतः जीवन भी नहीं है। कभी इस भूमण्डल पर भी जीवन-विनाशक गैसों का अंबार था। दुर्गासप्तशती में वर्णित मधु-कैटभ और विष्णु क्रमशः जीवन-विनाशक और जीवनदायिनी गैसें ही थीं। मार्कण्डेय पुराण में विष्णु और मधु-कैटभ के बीच 5000 दिव्य वर्षों तक युद्ध चलने का वर्णन है। अर्थात् लाखों वर्षों तक कहीं युद्ध होता है क्या; किन्तु यहाँ पर ऐसा वर्णित है क्योंकि सांकेतिक रूप से यह इन्हीं दो गैसों का युद्ध था।
आज कोरोना आया है, कल इबोला आया था तो कल कुछ और आने वाला है। विषाणु और जीवाणु तो आने-जाने वाले हैं। विषाणु और जीवाणु के आने-जाने का यह सिलसिला अंतहीन है और यह हमेशा जारी रहेगा। चमगादड़ में नोवल कोरोना मौजूद था किन्तु हजारों वर्षों तक शान्त था क्योंकि पर्यावरण संस्कृति उतनी विकृत नहीं हुई थी।
प्रकृति ने इस धरा पर जीवन से पूर्व जो कुछ भी पैदा किया है वह सब जीवन का आधार है। ये पर्वत नद, नदी, नाले, तालाब, पेड़-पौधे आदि सभी जन-जीवन के लिये उपयोगी हैं। अतः इनको सुरक्षित रखना, अपने जीवन को सुरक्षित रखना है। इस तथ्य को भले ही आज का मानव नहीं समझ रहा है परन्तु हमारे प्रारम्भिक पूर्वज अच्छी तरह समझते थे। इसीलिए तो उन्होंने पहाड़ों, नदियों, वृक्षों को भगवान् का रूप मान कर उनके पूजा करने का विधान किया था। पूजा का अर्थ यह नहीं है कि पहाड़ों, नदियों, वृक्षों पर घी, गुड़ और मालायें चढ़ाई जायें। पूजा का अर्थ है कि उनका विनाश न होने दें। पहाड़ों पर वृक्षों को न कटने दें, नदियों के जल को दूषित न करें, वृक्षों को न कटने दें एवं अधिक से अधिक वृक्ष को लगायें। यह मानना उचित प्रतीत होता है कि उस समय के महापुरुष आज के इस वैज्ञानिक मानव से अधिक कुशल थे। वे पूजा करने का अर्थ इन्हें सुरक्षित रखना लेते थे। आज पूजा का अर्थ है उन्हें नष्ट कर देना। कितनी धर्मान्धता है कि तुलसी की पूजा में जल चढ़ा-चढ़ाकर ये लोग उसे नष्ट कर देते हैं। यह तो नहीं करते कि अधिक से अधिक तुलसी के वृक्षों को लगायें और उनका औषधि के रूप में उपयोग करें क्योंकि हमारे पूर्वजों को यह अच्छी तरह मालूम था कि तुलसी एक ऐसी वनस्पति है, जिसमें सोना पाया जाता है तथा यह अमृत के समान अनेकों रोगों की दवा है। सबसे अधिक तो यह है कि तुलसी पत्रा में रोग निरोधक क्षमता है। अतः तुलसी का अधिकाधिक रोपण उसकी पूजा है न कि एक तुलसी घर में रखकर पानी चढ़ा-चढ़ाकर उसे नष्ट कर देना। और तो और पीपल की पूजा का विधान हमारे मनीषियों ने किया। आखिर क्यों? इससे अच्छे अन्य वृक्ष भी थे जैसे कि अंगूर, सेब, आम, अनार, पपीता आदि जो फल देते हैं, जिनके फल कितने स्वादिष्ट होते हैं परन्तु पीपल को ही पूजना क्यों कहा? वह इसलिए कि एक पीपल का वृक्ष जितना ऊपर बढ़ता है उससे चार गुना जमीन में फैलता है। पीपल के वृक्ष की जड़ें 200 गज तक दूसरे खेत में भी देखी जा सकती हैं। अतः पीपल का पेड़ अपनी जड़ों द्वारा जल स्तर को उठाता है तथा जल स्तर ऊपर रहने से मानव की जलपान की समस्या का समाधान हो जाता है तथा कृषि की सिंचाई हेतु जल स्तर के ऊंचा होने से लाभ होता है। पीपल प्रदूषण दूर करने का सबसे अच्छा पेड़ है, यह ऑक्सीजन और कार्बनडाईऑक्साइड का स्तर पर्यावरण के हित में रखता है।
परन्तु प्रायः देखा जा सकता है कि स्त्रियाँ पीपल के पेड़ पर जल चढ़ाती हैं। उस पर धागे बाँधती हैं, यह सब अन्धविश्वास ही है। लोगों ने पूजा के सही आशय को नहीं समझा है। अतः इसके समुचित विधान का पालन आवश्यक है।
वैसे आज हम भले ही चाँद और मंगल पर चले जाएँ लेकिन वहाँ से लाये नमूने भी विश्व में वायरस का कहर बरपा सकते हैं, इसके पीछे भी दोनों जगहों के पर्यावरण संस्कृति का मूलभूत अंतर ही कारण है। ऐसी आशंका अमेरिकन स्पेस एजेंसी नासा ने अभी विगत दिनों ही प्रकट की थी। ऐसा लग रहा है कि प्रकृति अपने रूप को बदलकर मानव जाति से बदले का उद्घोष कर रही हो। प्रकृति को रौंदने वालों याद रखो ये पंक्तियाँ-
अब यह प्रकृति के करवट बदलने का वक्त है, मनुष्य को यज्ञीय भावना से कर्मरत हो जाना चाहिए क्योंकि यज्ञ अपने हित से ज्यादा सम्पूर्ण समाज का हित करते हुए ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से ओत-प्रोत होता है। यज्ञ वास्तव में वातावरण से प्रेम, मानव-मानव से प्रेम और शुद्ध संस्कृति का मेल-जोल है।
आज कोरोना ने मन में समाई मन की दूरी को वास्तविक तौर पर तन की दूरी के रूप में पैदा करके मनुष्य को आईना दिखाने का ही काम किया है। अब यह हमारे ऊपर है कि हम वास्तविकता देखें या न देखें। कोरोना जैसे वायरस तो आते-जाते रहेंगे परन्तु विश्व की प्राकृतिक व्यवस्था को बनाये रखना अति-आवश्यक होगा, नहीं तो महामारी से लोगों को हताहत करके प्रकृति स्वयं अपनी व्यवस्था का निर्माण कर लेगी।